इंकलाब जिंदाबाद का नारा किसने दिया, इस नारे का मतलब क्या है

मुजाहिदे आजादी मौलाना हसरत मोहानी ने ही इंकलाब जिंदाबाद का नारा दिया, आज ही के दिन हुआ था इंतिकाल इंकलाब जिंदाबाद का नारा किसने दिया, इस नारे का मतलब
मौलाना हसरत मोहानी ने इंकलाब जिंदाबाद का नारा दिया, आज ही के दिन हुआ था इंतिकाल

बरेली: आजादी की लड़ाई में हमने कई वीर क्रांतिकारियों को खोया है. आजादी की उस लड़ाई में सिर्फ एक नारे ने पूरे देश को बांध कर रखा था और वो नारा था इंकलाब जिंदाबाद, अगर इस नारे का अर्थ निकाला जाए तो इसका मतलब होता है 'Long Live Revolution'. इसका हिंदी अर्थ है 'क्रांति अमर रहे'.

ये नारा आज भी लोगों की जुबान पर रहता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये नारा किसने लिखा. वो कौन है जिसकी कलम से ये 'Inquilab Zindabad' का नारा लिखा गया, तो आइए हम आपको बताते हैं.

इस्लामिक रिसर्च सेंटर के अध्यक्ष मौलाना शहाबुद्दीन रज़वी भारत को आजादी दिलाने वालो पर शोध का कार्य कर रहे हैं, रोहिला सरदार हाफिज रहमत खां, मौलाना फज़ले हक़ खैराबादी और मौलाना रज़ा आली खां बरेलवी जैसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर शोध का कार्य मुकम्मल हो गया है| इसी संदर्भ में मौलाना हसरत मोहानी जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ इंकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था एक बड़ा नाम इतिहास में दर्ज है आज ही के दिन हसरत मोहानी का इंतिकाल हुआ था|


आज एक बैठक हुई जिसमें मौलाना हसरत मोहानी को खिराज़-ए-अक़ीदत पैश किया गया, बैठक को सम्बोधित करते हुए मौलाना शहाबुद्दीन रज़वी ने कहा आज हम बात एक ऐसे इंसान की कर रहे हैं जिसने अपनी कलम की नज़्मों से बर्रे-सग़ीर की फ़िज़ा को बदल के रख दिया। बरतानी हुक़ूमत से जंग-ए-आज़ादी के मतवालों के 'इंकलाब जिंदाबाद' नारे को गढ़ने वाले कोई और नही बल्कि खुद मौलाना हसरत मोहानी थे। मोहानी साहब सही मायने में हिंदुस्तान की गंगा जमुनी तहज़ीब के आलंबरदार थे 

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उनका शुमार अपने ज़माने के कद्दावर सियासतदानों में किया जाता है, ऐसे सियासतदान जिन्होंने पूरी ज़िन्दगी मुल्को-मिल्लत की हिफाज़त करने में लगा दी। हर साल 13 मई मोहानी साहब के यौमे वफ़ात के तौर पर याद किया जाता है। हिंदुस्तान की रूह तब तक अधूरी है जब तक इसकी अपनी ज़ुबान उर्दू की गुफ़्तगू ना हो, और उर्दू की दास्तां तब तक अधूरी रहेगी जब तक इसमें हसरत मोहानी साहब का ज़िक्र ना हो। हसरत मोहानी साहब की आमद के बाद हिंदुस्तान की जंग-ए-आज़ादी उरूज पर पहुंची। शायर मोहानी साहब अंग्रेज़ हुक़ूमत के इतने सख़्त मुख़ालिफ़ थे कि इन्होंने दूसरे ससियासतदानोंसे इतर मुक़म्मल आज़ादी की मांग कर डाली थी जिससे अंग्रेज़ी हुक़ूमत की चूल्हें हिल गये थे।

इन्होंने अपनी नज़्मों में कभी हिन्दू-मुस्लिम का भेद नही किया, अक्सर इनकी कलम से निकले हुए अल्फ़ाज़ हुकूमतों के साथ साथ फिरकापरस्त ताकतों को भी डरा दिया करते थे। इनकी सोच और तर्बियत में socialism का अहम हिस्सा था जिसकी जानिब से मोहानी साहब ने पूरे मशरिक़ की कयादत को जगाने का काम किया। मोहानी साहब हिंदुस्तान की तक़सीम के बड़े मुख़ालिफ़ थे और बड़े भारी मन से इन्होंने हिंदुस्तान के टुकड़े होते देखा। मौलाना साहब ने हिंदुस्तान से मोहब्बत के जज़्बे में पाकिस्तान जाना नामंज़ूर कर दिया और हिंदुस्तानी मुसलमानों को यकीनी तौर पर हिंदुस्तान के साथ बने रहने के लिए रज़ामंद किया। उन्हें उनके यौमे वफ़ात पर याद करना उनको खिराज़-ए-अक़ीदत पेश करने के बराबर होगा

मौलाना ने आगे कहा कि हसरत मोहानी साहब का बरेली से गहरा रिश्ता रहा है, बरेली में होने वाली आजादी की सभाओं में वो अक्सर आया करते थे, आला हज़रत के मंझले भाई मौलाना हसन रज़ा खां हसन बरेलवी के अच्छे दोस्त थे, 1908 में मौलाना हसन बरेलवी के इतिंकाल पर एक दर्द भरा मज़मून भी लिखा था जो इतिहास की किताबों में आज भी मौजूद है 

बैठक में मुख्य रूप से मुफ़्ती हाशिम रज़ा खां, मौलाना सिराज कादरी, मौलाना अबसार अहमद, मुफ़्ती तौकीर अहमद, मौलाना ताहिर रज़ा फरीदी, कारी गुलाम मुस्तफा, हाफिज मुजाहिद हुसैन, डॉ नदीम, इश्तियाक अहमद, डॉ अनवर रज़ा कादरी, साहिल रज़ा कादरी, हाफिज आमिर बरकाती आदि उपस्थित रहें|

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