Why is it important to keep fast in Ramadan

खुदा ने इंसानों को बेशूमार नेमतें अता की है, इन नेमतों में से एक नेमत रोज़ा है जो रमज़ान शरीफ के महीने के नाम से जाना जाता है|


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रमज़ान एक पवित्र महीना


Roza इस्लाम के अर्कान में से तीसरा रूकन है, कुरान शरीफ में खुदा फरमाता है कि "ए ईमान वालो तुम पर रमज़ान के रोज़ो को फर्ज़ किया गया है, जैसा कि तुमसे पहली वाली उमतो पर फर्ज़ किया गया था ताकि तुम मुत्ताकी और परेजगार बन जाओ" रमज़ान का रोज़ा हर आकील व बालिग मुसलमान मर्द और औरत पर जिसमें रोज़ा रखने की ताकत हो उस पर फर्ज़ है, जबतक कोई ऊज़र न हो रोज़ा छोडना दुरुस्त नहीं है| हुज़ूर नबिये करीम नबूवत मिलने के बाद 13 साल तक मक्का शरीफ में ही लोगों को खुदा का हुक्म सुनाते और तबलिग करते रहे, बहुत जमाने तक सिवाये ईमान लाने और खुदा को एक जानने के अलावा कोई दुसरा हुक्म न था, फिर अहिस्ता अहिस्ता खुदा के ऐहकामात आना शुरू हुए, इस्लाम के अर्कान में सबसे पहला रुक्म नमाज़ पढ़ना फर्ज़ हुआ, फिर मक्का से हिज़रत कर जाने के बाद जब हूजूर मदीना शरीफ पहुंचे तो वहाँ बहुत से ऐहकामात आना शुरू हुए, उन्हीं में से एक हुक्म रोज़े का भी था, रोज़े की तकलिफ चूंकि नफस पर गिरा गुजरती है इसलिए उसको फर्जियत में 3 सरा दर्जा दिया गया|


इस्लाम ने ऐहकामात के फर्ज़ होने में ये तरिका इख्तियार किया कि पहले नमाज को जो जरा हल्की थीं उसको फर्ज़ किया, फिर जकात को, उसके बाद रोज़े को फर्ज़ किया, रोज़े के अंदर शुरू में इतनी सहूलत और रियायत थी कि जिसका जी चाहे रोज़ा रख ले औऔर जो चाहे एक रोज़े के बदले किसी गरीब को एक दिन का खाना खिला दे| खुदा ने अपने बंदों की कमजोरीयो पर नज़र फरमाते हुए आहिस्ता आहिस्ता रोजों कि आदत डलवाई, जब कुछ जमाना गुजर गया और लोगों को रोज़ा रखने की आदत हो गयी तो माजूर और बीमार लोगों के सिवा बाकी सब लोगों के हक़ में ये इख़्तियार खत्म कर दिया गया, और हिज़रत के डेढ़ साल बाद दस शावान सन् 2 हिज़री में मदीना शरीफ में रमज़ान के रोज़े की फर्जीयत का हुक्म हुआ, अब इसके अलावा कोई रोज़ा फर्ज़ न रहा| 


लेखक

मौलाना शहाबुद्दीन रज़वी

अध्यक्ष इस्लामिक रिसर्च सेंटर

दरगाह आला हज़रत, बरेली शरीफ

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